रोजाना24न्यूज़: नौजवान समाज सेवी और वराही फाउंडेशन अध्यक्ष गुनीत खेड़ा ने अमर बलिदानी वीर, भारत के वीर सपूत चंद्र शेखर तिवारी उर्फ चंद्र शेखर ‘आज़ाद’ को उनकी जन्म जयंती पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए बताया कि आज़ाद आज भी करोडों भारतवासियों के दिलों में आजाद हैं। आज भी जब आज़ाद का उल्लेख होता है तो मूंछों को ताव देता हुआ एक नौजवान याद आता है जिससे अँग्रेजी हुकूमत भी डरती थी और उन्हें काबू करने में हमेशा असफल रहीं थी। 23 जुलाई, 1906 को मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के भाबरा नामक स्थान पर पंडित सीताराम तिवारी और जागरानी देवी के घर जन्मे चंद्र शेखर आजाद जलियांवाला बाग कांड के समय बनारस में पढ़ाई कर रहे थे। जब गांधीजी ने सन् 1921 में असहयोग आन्दोलन शुरू किया तो वे अपनी पढ़ाई छोड़कर आन्दोलन के समय सड़क पर उतर आए। तब 14 साल की उम्र में उनकी गिरफ्तारी हुई और न्याधीश के सामने पेश किया गया तो उन्होंने अपना नाम ‘आजाद’, पिता का नाम ‘स्वतंत्रता’ और ‘जेल’ को अपना पता बताया जिसे सुनकर जज ने उन्हें सरेआम 15 कोड़े लगाने की सजा सुनाई। ये वो पल था जब उनकी पीठ पर 15 कोड़े बरस रहे थे और वो वंदे मातरम् का उदघोष लगा रहे थे। इस ही वाक्य के बाद ‘आज़ाद’ नाम से उनको संबोधित किया जाने लगा और वे खुद भी अपना ये नाम पसंद था।
1922 में गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन वापिस लेने से आजाद बहुत मायूस हुए और उसी समय में उनका मिलना क्रांतिकारी दल के संस्थापक राम प्रसाद बिस्मिल से हुआ और उनके साथ मिलकर क्रांतिकारी गतिविधयों में भाग लिया। जलियांवाला बाघ हत्याकांड ने भी उन्हें बहुत आहत किया। लाला लाजपत राय जी की हत्या से उनके सब्र का बांध टूट गया जिससे उनका रुख ‘हिंसा से आजादी’ के मंत्र की तरफ़ हुआ जिसका परिणाम यह निकला कि उन्होंने महान क्रांतिकारी भगत सिंह और अन्य साथियो के साथ मिलकर अँग्रेज अफसर सॉण्डर्स की हत्या कर दी। आजाद का यह मानना था कि संघर्ष की राह में हिंसा होना कोई बड़ी बात नहीं है इसके विपरीत हिंसा बेहद जरूरी है।
वर्ष 1928 में चंद्रशेखर आजाद ने महान क्रांतिकारी भगत सिंह के साथ हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) संगठन को हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) में पुनर्गठित किया।
“दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं और आजाद ही रहेंगे।”
– यही कहना था आजाद का और उनके अंतिम समय में भी वे अपने कथन पर खरा उतरे। भगत सिंह और साथियो की फांसी के फैसले पर असहमति पर चंद्रशेखर आजाद जब नेहरू से मिलने इलाहाबाद गए तो उन्होंने चंद्रशेखर की बात नहीं सुनी और आजाद वहां से निकलकर अपने साथी सुखदेव राज के साथ एल्फ्रेड पार्क चले गए। वे अभी बात ही कर रहे थे कि पुलिस ने उन्हे घेर लिया और गोलीबारी शुरू कर दी। आजाद ने भी बहुत बहादुरी से उनका सामना किया।
चंद्रशेखर आजाद ने पहले ही यह प्रण किया था कि वह कभी भी जिंदा पुलिस के हाथ नहीं आएंगे. इसी प्रण को निभाते हुए उन्होंने आखिरी बची हुई गोली खुद को मार ली। पुलिस के अंदर चंद्रशेखर आजाद का भय इतना था कि किसी को भी उनके मृत शरीर के के पास जाने तक की हिम्मत नहीं थी. उनके शरीर पर गोली चला और पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद ही चंद्रशेखर की मृत्यु की पुष्टि हुई।
आजाद ने 24 साल की छोटी सी उम्र में बलिदान देकर पूरे देश मे आजादी की ऐसी चिनगारी लगाई पूरे राष्ट्र में आग की तरह फैल गयी। इसलिए यह कहना आज भी उतना ही सत्य है कि आज़ाद आज भी करोड़ों देशवासियों के दिलों में आजाद है।